"राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ"


 "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक थे डॉ. केशव बळीराम हेडगेवार। संघ विश्वविख्यात हो गया है, अपनी अद्वितीय संघटनशैली के कारण। उसके साथ ही उसके संस्थापक डॉ. हेडगेवार का भी नाम विश्वविख्यात हुआ है।


शासकीय सेवा में प्रवेश के लिये या अपना अस्पताल खोलकर पैसा कमाने के लिये वे डॉक्टर बने ही नहीं थे। भारत का स्वातंत्र्य यही उनके जीवन का ध्येय था। उस ध्येय का विचार करते करते उनके ध्यान में स्वतंत्रता हासील करने हेतु क्रांतिकारी क्रियारीतियों की मर्यादाएं ध्यान में आ गई। दो-चार अंग्रेज अधिकारियों की हत्या होने के कारण अंग्रेज यहाँ से भागनेवाले नहीं थे। किसी भी बडे आंदोलन के सफलता के लिये व्यापक जनसमर्थन की आवश्यकता होती है। क्रांतिकारियों की क्रियाकलापों में उसका अभाव था। सामान्य जनता में जब तक स्वतंत्रता की प्रखर चाह निर्माण नहीं होती, तब तक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी और मिली तो भी टिकेगी नहीं, यह बात अब उनके मनपर अंकित हो गई थी। अत: नागपुर लौटने के बाद गहन विचार कर थोडे ही समय में उन्होंने उस क्रियाविधि से अपने को दूर किया और काँग्रेस के जन-आंदोलन में पूरी ताकत से शामील हुये। यह वर्ष था 1916। लोकमान्य तिलक जी मंडाले का छ: वर्षों का कारावास समाप्त कर मु़क़्त हो गये थे। ‘‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे मैं प्राप्त करके ही रहूँगा’’ उनकी इस घोषणा से जनमानस में चेतना की एक प्रबल लहर निर्माण हुई थी। डॉ. केशवराव हेडगेवार भी उस लहर के अंग बन गये। उससे एकरूप हो गये। अंग्रेज सरकार के खिलाफ उग्र भाषण भी देने लगे। अंग्रेज सरकारने उनपर भाषणबंदी का नियम लागू किया। किन्तु डॉक्टर जी ने उसे माना नहीं। और अपना भाषणक्रम चालूही रखा। फिर अंग्रेज सरकारने उनपर मामला दर्ज किया और उनको एक वर्ष की सश्रम कारावास की सजा दी। 12 जुलाय 1922 को कारागृह से वे मुक्त हुये।


संघ का जन्म

एक वर्ष के कारावास में उनके मन में विचारमंथन अवश्य ही चला होगा। उनके मन में अवश्य यह विचार आया होगा कि क्या जनमानस में स्वतंत्रता की चाह मात्र से स्वतंत्रता प्राप्त होगी। वे इस निष्कर्षपर आये कि स्वतंत्रता के लिये अंग्रेजों से प्रदीर्घ संघर्ष करना होगा। उस हेतु जनता में से ही किसी एक अंश को संगठित होकर नेतृत्व करना होगा। जनता साथ तो देगी किन्तु केवल जनभावना पर्याप्त नहीं होगी। स्वतंत्रता की आकांक्षा से ओतप्रोत एक संगठन खडा होना आवश्यक है, जो जनता का नेतृत्व करेगा, तभी संघर्ष दीर्घ काल तक चल सकेगा। जल्दबाजी से कुछ मिलनेवाला नहीं है। अत: कारावास से मुक्त होनेपर इस दिशा में उनका विचारचक्र चला और उसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्म हुआ।

संघ की कार्यरीति

यह संगठन हिन्दुओं का ही होगा, यह भी निश्चय उनका हो गया था। क्यौं कि इस देश का भाग्य और भवितव्य हिन्दु समाज से निगडित है। अन्य समाजों का साथ मिल सकता है। किन्तु संगठन की अभेद्यता के लिये केवल हिन्दुओं का ही संगठन हो इस निष्कर्षपर वे आये। अंग्रेज चालाख है। फूट डालने की नीति में कुशल है और सफल भी थे। यह डॉक्टर जी ने भलीभाँति जान लिया। इस लिये उन्होंने हिन्दुओं का ही संगठन खडा करने का निश्चय किया। हिन्दु की परिभाषा उनकी व्यापक थी। उस में सिक्ख, जैन और बौद्ध भी अन्तर्भूत थे। वे यह भी जानते थे कि हिन्दु एक जमात (community) नहीं है। वह ‘राष्ट्र’ है। अत: उन्होंने, अनेक सहयोगियों से विचार कर उसका नाम ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ रखा।
हिन्दुओं का संगठन खडा करना यह आसान बात नहीं थी। अनेक जातियों में, अनेक भाषाओं में, अनेक संप्रदायों में हिन्दु समाज विभक्त था। इतनाही नहीं तो अपनी अपनी जाति के, भाषा के और संप्रदाय के अभिमान भी उत्कट थे। साथ ही जातिप्रथा के कारण उच्चनीच भाव भी था। अस्पृश्यता का भी प्रचलन था। इन सब बाधाओं का विचारकर, उन्होंने अपनी अलोकसामान्य प्रतिभा से एक अभिनव कार्यपद्धति का निर्माण किया। वह पद्धति यानी संघ की दैनंदिन शाखा की प्रद्धति। हम अपने समाज के लिये, अपने देश के लिये कार्य करना चाहते हैं ना, तो अपने 24 घण्टों के समय में से कम से कम एक घण्टा संघ के लिये देने का उन्होंने आग्रह रखा। और उनकी दूसरी विशेषता यह थी, समाज में के भेदों का जिक्र ही नहीं करना। बस् एकता की बात करना। अन्य समाजसुधारक भी उस समय थे। उनको भी जातिप्रथा के कारण आया उच्चनीच भाव तथा अस्पृश्यता को मिटाना था। किन्तु वे जाति का उल्लेख कर उसपर प्रहार करते थे। डॉक्टर जी ने एक नये मार्ग को चुना। उन्होंने तय किया कि व्यक्ति की जाति ध्यान में नहीं लेंगे। केवल सब में विराजमान एकत्व की यानी हिन्दुत्व की ही भाषा बोलेंगे। इस कार्यपद्धति द्वारा उन्होंने शाखा में सब को एक पंक्ति में खडा किया। एक पंक्ति में कंधे से कंधा मिलाकर चलने को सिखाया और क्रांतिकारी बात यह थी एक पंक्ति में सबको भोजन के लिये बिठाया। ‘एकश: सम्पत्’ यह जो संघ शाखापद्धति की विशिष्टतापूर्ण आज्ञा है वह डॉक्टर जी की मौलिक विचारसरणी का प्रतीक है। मैं तो कहूँगा कि वह एक क्रांतिकारी आज्ञा है। सारा संघ उस आज्ञा के भाव से आज तक अनुप्राणित है।

खास तरीका

इसका एक उदाहरण मेरे स्मरण में है। बात 1932 की है। प्रथम बार नागपुर में संघ के शीत शिबिर में जिनको समाज अस्पृश्य मानता था, उस समाज से स्वयंसेवक आये। उनके ही पडोस के मुहल्ले से आये हुये अन्य जाति के स्वयंसेवकों ने डॉक्टर जी से कहा कि, हम इनके साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करेंगे। डॉक्टर जी ने उनको यह तो नहीं कहा कि आप शिबिर से चले जाइये। उन्होंने उनसे कहा ‘ठीक है, आप अलग पंक्ति बना कर भोजन कीजिये। मैं तो उनके साथ ही भोजन करूँगा।’’ उस दिन उस विशिष्ट जाति के 10-12 स्वयंसेवकों ने अलग पंक्ति में बैठकर भोजन किया। अन्य करीब तीनसौ  स्वयंसेवकोंने, डॉक्टर जी समेत, समान पंक्तियों में बैठकर अपना भोजन किया। दूसरे दिन चमत्कार हुआ। उन 10-12  स्वयंसेवकों ने भी सब के साथ पंक्ति में बैठकर भोजन किया। बोर्डपर विद्यमान किसी रेषा को छोटी करनी हो तो उसके लिये दो तरीके हैं। एक यह कि डस्टर लेकर उस रेषा को किसी एक छोर से मिटाये। और दूसरा यह कि उस रेषा के ऊपर एक बडी रेषा खींचे। वह मूल रेषा आपही आप छोटी हो जाती है। डॉक्टर जी ने दूसरे तरीके को अपनाया। सब के ऊपर हिन्दुत्व की बडी रेषा खींची। बाकी सब रेषाएं आप ही आप छोटी हो गई। इस पद्धति की सफलता यह है कि संघ में किसी व्यक्ति की जाती पूछी ही जाती नहीं। इस तरीके से संघ में जातिभेद मिट गया। छुआछूत समाप्त हुई। 1934 में महात्मा जी ने भी संघ की इस विशेषता का, उनके आश्रम के समीप जो संघ का शिबिर लगा था, उस में जाकर स्वयं अनुभव किया। संघ जातिनिरपेक्ष, भाषानिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष बना। और बिखरे हुये हिन्दुओं का संगठन करने में सफल बना।


कार्यकर्ता

किसी भी संस्था चलाने के लिये कार्यकर्ता चाहिये। वे कहॉ से आयेंगे। डॉक्टर जी ने वे संघ से ही निर्माण किये। उत्कट देशभक्ति और निरपेक्ष समाजनिष्ठा की भावना से डॉक्टर जी ने तरुणों को अनुप्राणित किया। और 18-20 वर्ष की आयुवाले तरुण, अननुभवी होते हुये भी, रावलपिंडी, लाहोर, देहली, लखनौं, चेन्नई, कालिकत, बेंगलूर ऐसे सुदूर स्थित अपरिचित शहरों में गये। प्राय:, शिक्षा का हेतु लेकर ये तरुण गये। किन्तु मुख्य उद्देश्य था वहाँ संघ की शाखा स्थापन करना। इन तरुणों ने अपने समवयस्क तरुणों को अपने साथ यानी संघ के साथ जोडा। और शिक्षा समाप्ति के पश्चात् भी वे वहीं कार्य करते रहे। उनके परिश्रम से संघ आसेतुहिमाचल विस्तृत हुआ। उस समय ‘प्रचारक’ यह संज्ञा रूढ नहीं हुई थी। किन्तु ये सारे प्रचारक ही थे। आज भी उच्चविद्याविभूषित तरुण, ‘प्रचारक’ बनकर अपना सारा जीवन संघ के लिये समर्पित करते दिखाई देते हैं। इन कार्यकर्ताओं के प्रयत्नों को अभूतपूर्व यश मिला और 1940 के नागपुर में हुये संघ शिक्षा वर्ग में एक असम का अपवाद छोडकर उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक के सब प्रान्तों से शिक्षार्थी स्वयंसेवक उपस्थित थे। डॉक्टर जी अपनी आँखों में हिंदुस्थान का लघुरूप देख सके। उस शिक्षा वर्ग के समाप्ति के पश्चात् केवल 11 दिनों के बाद ही यानी 21 जून 1940 को डॉक्टर जी ने इहलोक की जीवनयात्रा समाप्त की। 51 वर्षों का उनका जीवन कृतार्थ हुआ।
आज डॉक्टर जी ने स्थापन किया हुआ संघ भारत के सभी जिलों में फैला है। और भारत के बाहर 35 देशों में उसका विस्तार हुआ है। अंतर इतना ही कि विदेश स्थित संघ का नाम हिंदू स्वयंसेवक संघ है। आज की बिगडी हुई सामाजिक स्थिति के परिप्रेक्ष्य में संघ ही एकमात्र जनता की आशा का स्थान है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा परम पूजनीय डॉ. केशव बळीराम हेडगेवारजी का जन्मदिन है।  "   मा. गो. वैद्य


Santoshkumar B Pandey at 8am

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